Wednesday, October 01, 2008

इन्कलाब

इन्कलाब

आग ही आग
दिशाऍ करती हाहाकार
काटो, मारो
के प्रखर नाद से
घुमिल हो रहा प्रलाप है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
माँ की कोख,
घर का आँगन
बन गया शमशान है
हर दिशा, हर कोने से
उठ रही चितकार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
नई नवेली का सुहाग
किसी घर का बुझा चिराग है
शहर, गली, नुक्कड़
हर ओर से
उठ रहा अंगार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
स्वार्थो की सिध्दी
मासूमों पर प्रहार
धर्म की आड़ मेँ
वोटों का सजा बाजार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है

ओ पाहुन.....