घनी जुल्फों की सफेदी को कालक से ढकने लगी हूँ
वजह बेवजह अब थकने लगी हूँ
घर-बाहर भीड़ से कटने लगी हूँ
लगता है अब मै बूढी होने लगी हूँ
घर पर अक्सर सभी से उलझने लगी हूँ
बात-बेबात
बच्चों से झगड़ने लगी हूँ
अनहोनी के भय से
डरने लगी हूँ
लगता है अब मै बूढी होने लगी हूँ
त्योहारों की चहल पहल से सहमने लगी हूँ
नाते-रिश्तेदारों से कटने लगी हूँ
दिखावा फरेब शायद समझने लगी हूँ
लगता है अब मै बूढी
होने लगी हूँ
बहुत कुछ अनदेखा करने लगी हूँ
चलते-चलते अक्सर थमने लगी हूँ
शायद अपने कमजोर दिल को समझने लगी हूँ
लगता है अब मै बूढी होने लगी हूँ
कभी कभी अपने मन की भी अब सुनने लगी हूँ
पल दो पल ही सही खुद से मिलने लगी हूँ
दुनिया की शतरंजी शय मात से बचने लगी हूँ
लगता है अब मै बूढी होने लगी हूँ