Friday, November 14, 2008

तेरा खत


हजारोँ पैगाम भेजे
तब इक जवाब आया
बरसोँ बाद
तेरी खुशबू से भरे
तेरे खत को
धड़कते दिल से
था हमने लगाया
हर मोती पर था
तेरी बेरूखी का साया
जिसके जोर ने
नम आँखोँ को भी
था आज पथराया
लिखा था तूने
"तुझको भूल जाँऊ
थी जो दिल्लगी
ना यू दिल से लगाऊँ
थी वो एक भूल
ना अब बुझी
आग सुलगाऊँ"
हजारोँ बार
तेरे खत को
इस बार भी पढ़ा हमने
अंदाज, लिखावट, खुशबू
सभी पहचाने पहचाने
से लगे
ना जाने क्यू
आज पहली बार
चाँद में
बस दाग ही दाग दिखे

Wednesday, October 01, 2008

इन्कलाब

इन्कलाब

आग ही आग
दिशाऍ करती हाहाकार
काटो, मारो
के प्रखर नाद से
घुमिल हो रहा प्रलाप है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
माँ की कोख,
घर का आँगन
बन गया शमशान है
हर दिशा, हर कोने से
उठ रही चितकार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
नई नवेली का सुहाग
किसी घर का बुझा चिराग है
शहर, गली, नुक्कड़
हर ओर से
उठ रहा अंगार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है
स्वार्थो की सिध्दी
मासूमों पर प्रहार
धर्म की आड़ मेँ
वोटों का सजा बाजार है
कौन जाने, कौन से मजहब का
ये कैसा इन्कलाब है

Wednesday, May 28, 2008

बैरी उर

बीते युग
पल-पल, गिन-गिन,
शिथिल हुई हर श्‍वास
धड़क उठा बैरी उर फिर
सुनकर किसकी पदचाप ?
बह गया
रिम-झिम, रिम-झिम,
गहन घन-संताप
सजल हुआ बैरी उर फिर
सुनकर क्‍यूँ मेध मल्‍लार
जल उठे 
झिल-मिल, झिल-मिल,
कामनाओं के दीप
धधक उठा बैरी उर फिर
सुनकर क्‍यूँ मिलन गीत ?

Monday, March 31, 2008

पीङा

उभर गई उर की पीङा
सजल नयनन की पाती पर

ना सिमटी जब पलकों के आँचल
ढुलकी अधरों की प्‍याली पर

नेह का उपहार वो
प्रेम का वरदान थी
विकल तन के दामन में
वो, निश्‍चल मुस्‍कान थी
आँहों में इतिहास सजोया
स्‍मृतियों में पिरोए प्राण थे
सुने मन के रागों की
वो आलौकिक वीणा तान थी
निस्‍पंद उर की आस वो
बुझते दीपक की बाती थी
क्‍ँयू तोड बन्‍धन इस क्षितिज के
आज बह चली उस पार है००

Sunday, March 09, 2008

ये जिन्‍दगी....

अबूझ पहेली ये जिन्‍दगी

चले संग-संग लिए कई रंग

कभी आँगन दमके इन्‍द्रधनुष

छाये कभी घोर गहन तम

लगे कभी थमी -थमी

जैसे तना वितान गगन

बह चले कभी ऐसे

जैसे उन्‍मुक्‍त पवन

कभी उमंग की डोर पर

उड़ चले छूने घन

कभी बन मूक व्‍यथा

ढुलके, मिले रज-तन

सँ।सों के बंधन में

चली चले अपनी ही धुन

इक पल में थम जाए

छूटे जब सँ।सों का संग


Wednesday, February 20, 2008

आस्‍था और विश्‍वास.......

एक रोज अचानक
मुझसे मेरी बेटी ने
किया आकर
अद्‍भुत एक सवाल
माँ क्‍या सच में ....
'थे भगवान राम'


नष्‍ट हुई लंका में
नित मिल रहे हैं
कई प्रमाण
बताओ ना
'माँ क्‍या सच में
थे भगवान राम

था सवाल सहज, सरल

कर गया मगर उर विह्‍वल
गुँजनें लगे वे अबोध-शब्‍द
बन प्रचण्‍ड स्‍वर-लहर
माँ क्‍या सच में
'थे भगवान राम'

प्रश्‍न जितना प्रखर था
जवाब में शब्‍द
उतने ही मौन
लगी सोचने
कैसे बताऊँ इसको
'थे प्रभु राम कौन

थी चैतन्‍य जब आस्‍था
मन में बसते थे तब राम
नहीं खोजता था तब कोई
जा-जाकर चारों धाम
है डगमगायी वही आस्‍था
लिए निस्‍तेज प्राण
डोल रही घट-घट
ले-लेकर प्रभु नाम
सोचती हूँ तब से
मन में लिए तूफान
कैसे बताऊँ उसको
बिन दिए कोई प्रमाण
कण-कण में
अब भी बसते है
परम पुज्‍य प्रभु राम

Thursday, March 08, 2007

आयो रे आयो फागुन आज

फागुन की छटा में
बिखरे रंग हजार
सखी-री सखी
मन भाए रंग-रास

आयो रे आयो फागुन आज

धरा गगन का मूक मिलन
धूमिल हुआ आकाश
सघन-घन की बिखरी घटा में
मुखरित हुए सुर-साज

आयो रे आयो फागुन आज

सनन -सनन मलयानिल डोले
उपवन बने फूलों की थाल
सुरभित शीतल मंद पवन-संग
थिरक उठे पग-आप

आयो रे आयो फागुन आज

सिहर सिहर उठती लहरें
कम्‍पित करने तट-गात
संचित स्‍वप्‍न दमके नयनों में
सुन सुन पिया पद-चाप

आयो रे आयो फागुन आज

ओ पाहुन.....