Wednesday, February 22, 2006

मत छुओ इन पलकों को

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

भूल गई थीं
पथ ये अपना
चंचल सपनों संग
चिर मेल अपना
सपनों के कम्पन से
आज इनका सूनापन
मिटने दो।

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

मूक व्यथा ने था
किया बसेरा
विरह घन ने था
इनको घेरा
drig- शिला को
बन जल-कण
आज बिखरने दो

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

युगों में बीते
विरह पल-‍छिन
तरसे दरस बिन
तRषित लोचन
उर सागर को आज
अमिट प्यास
हरने दो।

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

Monday, February 13, 2006

“वैलनटाइन” बनाम “ बेलनटाइम”


था “वैलनटाइन” का जोर
थी धूम चारों ओर
अखबारों से चलचित्र तक
बस इसका ही था शोर

हर युवक का मन था
आनन्द विभोर
थी आशा शायद
इस बार जुड़ सके
मन की डोर

बताया एक मित्र ने
ये दिन है
दिल का हाल सुनाने का
दिल कि बात
दिल तक पहुँचाने का

बजने लगी जल तरंग
हमारे भी इस नीरस मन में
आया विचार देखें भला
क्या असर हैं इस दिन में

थी समस्या भला कैसे
‌‌‌ श्रीमती जी को यह बात समझाऍ
अपने बेताब दिल का
उन तक भी हाल पहुँचाऍ

उठायी कलम
लिख भेजी चार पंक्तियाँ
कुछ यूँ हमने

"यूँ तो प्यार नहीं मोहताज
किसी लम्हे का
दिल चाहता है कि तुम्हें
हर पल प्यार करूँ
सुना है "ये दिन" है
चाहने वालों का
सोचा क्यों ना
खुल के इजहार करूँ।

पढ हमारा प्रेम पत्र
उनका पारा चढ गया
घुमा बेलन हाथ में
बेरूखी से
ये भाषण जड़ दिया
"कहाँ से पाला है तुमने
ये प्रेम का भूत भला
भगवान जाने कैसे
जाएगी अब ये बला।

अरे ! करना ही था इजहार
अपने खातों का करते
मुझ अबला को
यूँ पाई पाई को
मोहताज ना करते।

था मुझसे गर प्यार
कुछ उपहार दिया होता
पिसी जा रही हूँ
इस चक्की में
कुछ उपाय किया होता।

जाओ इस अनर्गल प्रलाप से
ना मुझे सताओ
नहीं है कुछ काम
तो बाजार ही हो आओ।

मित्रों ! पकड़ लिए कान
उसी पल हमने
ना अब कभी
ये भूल दोहराऍगे
टूट जाए चाहे
ये शादी अपनी
"बेलनटाइम" ना अब
कभी मनाऍगे।

Tuesday, January 17, 2006

किससे माँगें अपनी पहचान


हीय में उपजी,
पलकों में पली,
न‌श्रत्र सी आँखों के
अम्बर में सजी,
पल‍‍‍ ‍‍‍‍‍दो पल
पलक दोलों में झूल,
कपोलों में गई जो ढुलक,
मूक, परिचयहीन
वेदना नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

नभ से बिछुड़ी,
धरा पर आ गिरी,
अनजान डगर पर
जो निकली,
पल दो पल
पुष्प दल पर सजी,
अनिल के चल पंखों के साथ
रज में जा मिली,
निस्तेज, प्राणहीन
ओस की बूँद नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

सागर का प्रणय लास,
बेसुध वापिका
लगी करने नभ से बात,
पल दो पल
का वीचि विलास,
शमित शर ने
तोड़ा तभी प्रमाद,
मौन, अस्तित्वहीन
लहर नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान

सृष्टि ! कहो कैसा यह विधान
देकर एक ही आदि अंत की साँस
तुच्छ किए जो नादान
किससे माँगे अपनी पहचान।

Saturday, January 07, 2006

कौन ये ?

कौन ये ?


कौन बन प्रणय नाद
विरह वेदना को तोड़ता
है कौन जो श् वासों की डोर
तोड़कर फिर जोड़ता।

कौन बन अश्रु
तृषित लोचनों में डोलता
है कौन जो लधु प्रणों में
बन रूधिर दौड़ता ।

कौन बन संगीत
मधु मिलन गीत बोलता
है कौन जो पिघल श् वासों में
मन के भेद खोलता

कौन बन दीप
आलोक तिमिर में घोलता
है कौन जो निस्पंद उर को
फिर जीवन की ओर मोड़ता..............

Thursday, November 10, 2005

वह एक फूल

खिला कहीं किसी चमन में
एक फूल सुन्दर
अनुपम थी उसकी आभा
विस्मयी थी उसकी रंगत

इतना सुगंधित कि
हर मन हर्षा जाता
अपने गुणों से
वह प्रकर्ति का उपहार था
कहलाता

ज्यों ज्यों समय बीता
वह पुष्प और महका
अपने सौन्दर्य से
उस बगिया का
केन्द्र बन बैठा

तभी एक रात
भयानक तूफान आया
अपने बल से जिसने
चट्टानों को भी सरकाया
तूफान के जोर को
वह फूल भी न सह पाया
पलक झपकते ही
धूल में जा समाया

मन चमन के दुर्भाग्य पर
पछताया
क्यों इतना सुन्दर कुसुम
वह न सम्भाल पाया
काल के जोर को
कोई
क्यूँ न थाम पाया

तभी चमन ने
अपनी महक से
जीवन का अर्थ समझाया
कुछ पल ही सही
उस कुसुम ने
चमन को महकाया
जब तक जिया
सभी के मन को लुभाया
अल्प ही सही
उसका जीवन सच्चा जीवन कहलाया

Wednesday, November 09, 2005

दीप

दीप

जल अकम्पित
दीप उज्जवल
हो आलोकित
मन मन्दिर

मंगल गान
करे दिशाएँ
पुलक उठे
भू शिराऍ

हो `पज्जवलित
बन `पचडंधार
शुभ मंगल का
हो संचार

जल निरंतर
अचंचल हर पल
भोर के
आने तक
तम के घरा से
मिट जाने तक

जल अकम्पित
दीप उज्जवल

Monday, September 12, 2005

मुस्कान

मुस्कान

ओ निशछल मधुर मुस्कान
हर पल मेरा साथ निभाना
तुम बन मेरा साया
इस नीरस मन में समाना

नवजात शिशु सी है
कोमल तुम्हारी छुअन
माञ स्पर्श से देती है
हदय को स्पंदन
इक बार ही सही
मेरे सि्थर मन में
praण फूँक जाना
हो सके
पल दो पल
इसे भी गति दे जाना

सुगंधित पुष्प हो तुम
षोडषी का कोमल तन हो तुम
चपल किशोरी का
चंचल मन हो तुम
हो सके अपनी विस्मयी सुगंध से
मुझे भी महका जाना
अपनी कोमल बाँहोँ का
झूला झुला जाना
अपनी चंचलता मेरे
सि्थर होठों को दे जाना

मरूभूमि में आयी बहार हो तुम
गम्भीरता पर मानो prahar हो तुम
नई नवेली का shingar हो तुम
हो सके तो
बन बहार मेरे जीवन में आना
अपने अचूक वार से
मेरी उदासी मिटाना
बस एक बार फिर
मुझे नई नवेली सा सजा जाना

ओ पाहुन.....