सजल नयनन की पाती पर
ना सिमटी जब पलकों के आँचल
ढुलकी अधरों की प्याली पर
नेह का उपहार वो
प्रेम का वरदान थी
विकल तन के दामन में
वो, निश्चल मुस्कान थी
आँहों में इतिहास सजोया
स्मृतियों में पिरोए प्राण थे
सुने मन के रागों की
वो आलौकिक वीणा तान थी
निस्पंद उर की आस वो
बुझते दीपक की बाती थी
क्ँयू तोड बन्धन इस क्षितिज के
आज बह चली उस पार है००