Thursday, April 19, 2018

अम्बर- निशा संवाद

अम्बर निशा से
कर रहा
संवाद
हे प्रिये !
तुम रोज रात
आती करने
मुझसे मुलाकात
तारों की
टोली  संग
करने अभिसार।

गिन घड़ी-घड़ी
पहर -पहर
करता मैं भी
नित तुम्हारा
इन्तज़ार
दूर  से ही
जान लेता
तुम्हारी चंचल
पदचाप ।

असीम मेरा -
हृदय -पाश
गहन तुम्हारा -
प्रणय उन्माद
क्यू कर व्याकुल
मेरा हृदय
जाती छोड़ तुम
 हर बार।

रोती  तुम भी
देख मेरा 
ये मूक संताप
कहो प्रिये !
क्यूँ नही
रह सकते
फिर हम
हर पल साथ।

निशा सुन
अम्बर की
करुण चीत्कार
सिहर उठी
देख प्रिय का
घोर  विषाद ।

बोली प्रिय ,
जिसे तुम विरह
 कहते हो
वो  प्रेम का
अमुल्य उपहार है,
इसमें छुपा
रहस्य अपार है
ना होगी
गर वेदना
तो  ना होगा 
सुख दुख का
आभास।
विरह-मिलन
है जैसे दिन रात।

मेरे लौह-तिमिर को
छूने , जब -जब
पारस- किरणे
आती हैं
छूकर  मेरे
घन -केशों को
नित नई
स्वर्ण -कथा
लिख जाती  हैं।

दूर होकर तुमसे
देखो कैसे
 घुल जाता
मेरा  ये
सोंदर्य अपार
मिट जाती मेरी
श्यामल काया
जिससे तुम्हे
इतना अनुराग।

मत भूलो,
इस मिटने में   ही
छिपा अद्भूत
वरदान है।

मिट कर
नन्हा बीज करता 
शत -शत निर्माण  है।
मिट कर  ही
घन करते 
वृष्टि का दान हैं।
मिटता  जब
अस्तित्व मेरा
जगमगाता
ये  जहान है।

तुम्ही कहो  प्रिय!
कैसे तोड़ दूं 
सृष्टि का ये
अटूट विधान  मैं ।













Monday, April 16, 2018

ये मेरा जीवन दीप


आस की बाती
नेह की  लौ   
जलाए हृदय में
जल रहा
जो प्रतिपल ।

ये मेरा जीवन दीप

कभी चंचल
कभी अविचल
डोले कभी
होकर विकल।

ये मेरा जीवन दीप

पल पल
करता  आलोकित -
प्रिय पथ
लिए  नयनों में
आलौकिक  प्रित।

ये मेरा जीवन दीप

भेद रहा
असीम तम
जलाकर
कामनाओं के
असंख्य दीप ।

ये मेरा जीवन  दीप

हृदय में पीड़ा
नयनों में  नीर
श्वास -निश्वास
में  बसाए
जीवन संगीत ।

ये मेरा जीवन दीप

अनन्त  करुणा
असीम सूनापन
अविराम जलता
मेरा ये जीवन दीप

Sunday, April 08, 2018

प्रिय ! तुम तक कैसे मैं आती

प्रिय !  तुम तक कैसे मैं आती

सांसो के अक्षय
बंधन में
बोझिल  सांसें
आती जाती
पग -पग चलती
 राह न पाती
अनजाने पथ  में
खो जाती ।

प्रिय !  तुम तक कैसे मैं आती

सिसक -सिसक कर
मेरी पीड़ा
जब -जब अपनी
करुणा गाती
अपनी सुधि से
आधी -अधूरी
धूमिल सी
सुछवि बनाती
अविरल बहते
मेरे अश्रु
इक पल में ही
सब धो जाते ।

प्रिय !  तुम तक  कैसे मैं आती

आशा की
चंचल लहरों ने
जब भी रचा
मिलन सवेरा
चिर वेदनाओं के
कम्पन ने डाला
विरह तम
का घेरा ।

प्रिय ! तुम तक कैसे मैं आती

कल्पना के
चल -पंखों  से
जब -जब
तुम-तक
आना चाहा
अनजाने बेसुधपन में
मैंने तुमको  -
खुद में  खोया ,
खुद में पाया।


Wednesday, April 04, 2018

वो लघु पल ना अबआएगा


वो लघु पल ना अबआएगा

बिता हर  पल ,
इतिहास नया रचाएगा ,
पर लौट कर -
वो लघु पल ना अबआएगा

निजता से तुमने
इन प्राणों  को
 अनमोल
बनाया था
बन पारस
जीवन-पाषाण
सजाया था
कहो प्रिये!
दूर होकर
तुमसे-
इनका मोल
अब कौन
चुकाएगा।

वो लघु पल ना अबआएगा

उर सागर में
जीवन तरंग
नित नया
लास रचाएंगी
कभी  करेंगी
अम्बर से बाते
तो कभी तट से
जा  टकराएंगी
कहो प्रिये!
दूर होकर
तुमसे-
चिर-दुख में
अन्तः सुख
का अब आभास
कौन कराएगा।

वो लघु पल ना अबआएगा

मन की व्यथा
पलक दोलों से
अश्रु बन
बह जाएगी
छलक कर
एल पल में
धूल में  जा
समाएगी
कहो प्रिये!
दूर होकर
तुमसे-
पीड़ा ,
लघु जीवन का
मर्म किसे सुनाएगी ।

वो लघु पल ना अबआएगा

चिर कामनाएँ
दूर गगन को
नित छूने
जाएंगी,
असीम तक
जा जाकर
लौट आएंगी
कहो प्रिये!
दूर होकर
तुमसे-
भला क्या
ये अब जी पाएंगी ?


ओ पाहुन.....