Tuesday, January 17, 2006

किससे माँगें अपनी पहचान


हीय में उपजी,
पलकों में पली,
न‌श्रत्र सी आँखों के
अम्बर में सजी,
पल‍‍‍ ‍‍‍‍‍दो पल
पलक दोलों में झूल,
कपोलों में गई जो ढुलक,
मूक, परिचयहीन
वेदना नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

नभ से बिछुड़ी,
धरा पर आ गिरी,
अनजान डगर पर
जो निकली,
पल दो पल
पुष्प दल पर सजी,
अनिल के चल पंखों के साथ
रज में जा मिली,
निस्तेज, प्राणहीन
ओस की बूँद नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

सागर का प्रणय लास,
बेसुध वापिका
लगी करने नभ से बात,
पल दो पल
का वीचि विलास,
शमित शर ने
तोड़ा तभी प्रमाद,
मौन, अस्तित्वहीन
लहर नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान

सृष्टि ! कहो कैसा यह विधान
देकर एक ही आदि अंत की साँस
तुच्छ किए जो नादान
किससे माँगे अपनी पहचान।

3 comments:

  1. दीपा जी, आपकी यह कविता बहुत अच्‍छी लगी। लेकिन कुछ शब्‍दों के अर्थ समझ में नहीं आए। कृपया इन तीन शब्‍दों का अर्थ बताने का कष्ट करें - लास, वीचि और वापिका।

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  2. सूक्ष्मता की वेदना को खूब कहा, आपने।सूक्ष्मता ही संसार का आधार है...मै तो ऐसा ही समझता हूँ।

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  3. Hi Deepa,

    This is also very superb. I guess you have done PhD in Hindi... :)

    Keep it up... Keep writing,

    All the best,
    Regards,

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ओ पाहुन.....