Monday, March 31, 2008

पीङा

उभर गई उर की पीङा
सजल नयनन की पाती पर

ना सिमटी जब पलकों के आँचल
ढुलकी अधरों की प्‍याली पर

नेह का उपहार वो
प्रेम का वरदान थी
विकल तन के दामन में
वो, निश्‍चल मुस्‍कान थी
आँहों में इतिहास सजोया
स्‍मृतियों में पिरोए प्राण थे
सुने मन के रागों की
वो आलौकिक वीणा तान थी
निस्‍पंद उर की आस वो
बुझते दीपक की बाती थी
क्‍ँयू तोड बन्‍धन इस क्षितिज के
आज बह चली उस पार है००

2 comments:

  1. दीपा जी बहुत सुन्दर रचना है...शब्द संयोजन भी बहुत सुन्दर है...शुभ-कामनाएं...

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  2. deepa ji,
    pehli baar aapke blog par aana hua.aapki kavitayen padhiin , achchhi lageen.bahut sahaj aur saadgii se likhtiin hein aap.
    aise hi likhtiin rahein...

    shubhkaamna...

    --pramod kumar kush ' tanha'

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ओ पाहुन.....