Sunday, April 08, 2018

प्रिय ! तुम तक कैसे मैं आती

प्रिय !  तुम तक कैसे मैं आती

सांसो के अक्षय
बंधन में
बोझिल  सांसें
आती जाती
पग -पग चलती
 राह न पाती
अनजाने पथ  में
खो जाती ।

प्रिय !  तुम तक कैसे मैं आती

सिसक -सिसक कर
मेरी पीड़ा
जब -जब अपनी
करुणा गाती
अपनी सुधि से
आधी -अधूरी
धूमिल सी
सुछवि बनाती
अविरल बहते
मेरे अश्रु
इक पल में ही
सब धो जाते ।

प्रिय !  तुम तक  कैसे मैं आती

आशा की
चंचल लहरों ने
जब भी रचा
मिलन सवेरा
चिर वेदनाओं के
कम्पन ने डाला
विरह तम
का घेरा ।

प्रिय ! तुम तक कैसे मैं आती

कल्पना के
चल -पंखों  से
जब -जब
तुम-तक
आना चाहा
अनजाने बेसुधपन में
मैंने तुमको  -
खुद में  खोया ,
खुद में पाया।


1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति :)

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ओ पाहुन.....