Saturday, March 12, 2005

मानव

ये कैसी डगर हैये कैसा सफ़र है
चले जा रहा है
बढ़े जा रहा है
ना कोई है साथी
ना ही हम सफ़र है
अकेले ना जाने कहां रहा है
कँटीली हैं राहें
ये बंजर चमन है
मरुभूमि तय किए जा रहा है
ना राह है कोई
ना मंजिल है दिखती
अन्धेरे में फिर भी
बढ़े जा रहा है
लहुलुहान तन है
चंचल मन है
अनदेखे कल से
डरे जा रहा है
पाने की आशा
खोने का भय है
इसी द्वंद में शायद जिए जा रहा है

2 comments:

  1. दीपा जी, आपने नये स्थान पर बनाये ब्लाग के लिये बधाई,
    आपके ब्लाग का टाइटिल अंग्रेजी मे है,
    हिन्दी मे "अल्पविराम" ज्यादा अच्छा लगेगा.

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  2. Deepaji,
    Good to see your blog.Just stopped by to "Hi!".Visit my blog sometime@
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ओ पाहुन.....