मानव
ये कैसी डगर हैये कैसा सफ़र है
चले जा रहा है
बढ़े जा रहा है
ना कोई है साथी
ना ही हम सफ़र है
अकेले ना जाने कहां रहा है
कँटीली हैं राहें
कँटीली हैं राहें
ये बंजर चमन है
मरुभूमि तय किए जा रहा है
ना राह है कोई
ना मंजिल है दिखती
अन्धेरे में फिर भी
बढ़े जा रहा है
लहुलुहान तन है
लहुलुहान तन है
चंचल मन है
अनदेखे कल से
डरे जा रहा है
पाने की आशा
खोने का भय है
इसी द्वंद में शायद जिए जा रहा है
दीपा जी, आपने नये स्थान पर बनाये ब्लाग के लिये बधाई,
ReplyDeleteआपके ब्लाग का टाइटिल अंग्रेजी मे है,
हिन्दी मे "अल्पविराम" ज्यादा अच्छा लगेगा.
Deepaji,
ReplyDeleteGood to see your blog.Just stopped by to "Hi!".Visit my blog sometime@
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