घनघोर तम, निस्तेज तनअनुपम छटा छा गईनेह के मोती पिरोतीवो रात फिर आ गईबिखरे पड़े घन केशघुल रहा संताप हैप्रेम के नवगीत गातीवो रात फिर आ गईअलसित धरा ताके गगनबस में नही चंचल मनअम्बर धरा के मिलन कीवो रात फिर आ गई
बिखरे पड़े घन केशघुल रहा संताप हैप्रेम के नवगीत गातीवो रात फिर आ गईस्वागत है उस रात का!!
घनघोर तम, निस्तेज तनअनुपम छटा छा गईनेह के मोती पिरोतीवो रात फिर आ गईबहुत सुन्दर रचना है...
अति सुंदर
बधाई, रचना सुन्दर बन पड़ी है
गागर में सागर
आप बहुत बहुत बहुत अच्छा लिखती हैं मन प्रसन्न हो गया
बिखरे पड़े घन केश
ReplyDeleteघुल रहा संताप है
प्रेम के नवगीत गाती
वो रात फिर आ गई
स्वागत है उस रात का!!
घनघोर तम, निस्तेज तन
ReplyDeleteअनुपम छटा छा गई
नेह के मोती पिरोती
वो रात फिर आ गई
बहुत सुन्दर रचना है...
अति सुंदर
ReplyDeleteबधाई, रचना सुन्दर बन पड़ी है
ReplyDeleteगागर में सागर
ReplyDeleteआप बहुत बहुत बहुत अच्छा लिखती हैं
ReplyDeleteमन प्रसन्न हो गया