पुलकित लधु प्राण है
मधुर -मधुर सी इक कसक से
धुल रहा संताप है
पल्लवित हुआ जीवन कुसुम
बहे उन्मुक्त हर्ष बयार है
नयनों की मधुशाला से
छलक -छलके खुमार है
दिशाएँ गा रहीं मिलन गीत
स्वनोँ मेँ जो आया मनमीत
छूकर अघरोँ से नयन दीप
कर गया व्याकुल ह्रदय अधीर
(III)
होती थी जिसके आने से
मेरी सुबह शाम
क्या मालुम था वो चाँद
हर आंगन में निकला करता है
(IV)
उनको शिकायत है कि
हम हर बात में खफा होते हैं
कोई पूछे जाकर उनसे
वफा किसे कहते हैं
(V)
जाने कैसे दिल्लगी
दिल की लगी बन गई
क्योँ दे दोष उनको
भूल बेखुदी में
हमहीं से हो गई
(VI)
ना बन सके मेरे दामन की बहार
बन दर्द इस दिल में समा जाना
ना सुझे गर राह,
मिलने भी कभी मत आना
उखड़ने लगे जब "ये" साँस
बस एक झलक दिखा जाना
अबूझ पहेली ये जिन्दगी
चले संग-संग लिए कई रंग
कभी आँगन दमके इन्द्रधनुष
छाये कभी घोर गहन तम
लगे कभी थमी -थमी
जैसे तना वितान गगन
बह चले कभी ऐसे
जैसे उन्मुक्त पवन
कभी उमंग की डोर पर
उड़ चले छूने घन
कभी बन मूक व्यथा
ढुलके, मिले रज-तन
सँ।सों के बंधन में
चली चले अपनी ही धुन
इक पल में थम जाए
छूटे जब सँ।सों का संग
था सवाल सहज, सरल