Monday, November 17, 2008

नम आँखेँ

(I)
चले थे भूलाने उनको
खुद को मिटा बैठे
बेखुदी मेँ यारों
अपना ही आशियाँ
जला बैठे


(II)
हर बार वही देखा
जो देखना चाहा
उनकी हर अदा को
हमने वफा जाना
भूल अपनी थी
जो बेवफा को
खुदा माना

(III)
होती थी जिसके आने से
मेरी सुबह शाम
क्या मालुम था वो चाँद
हर आंगन में निकला करता है

(IV)

उनको शिकायत है कि
हम हर बात में खफा होते हैं
कोई पूछे जाकर उनसे
वफा किसे कहते हैं


(V)
जाने कैसे दिल्लगी
दिल की लगी बन गई
क्योँ दे दोष उनको
भूल बेखुदी में
हमहीं से हो गई


(VI)
ना बन सके मेरे दामन की बहार
बन दर्द इस दिल में समा जाना
ना सुझे गर राह,
मिलने भी कभी मत आना
उखड़ने लगे जब "ये" साँस
बस एक झलक दिखा जाना

5 comments:

  1. हर अल्फ़ाज़ में आग है

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  2. पत्‍थर के सनम तुझे हमने मोहब्‍बत का खुदा जाना

    अच्‍छा लिखा हे

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  3. चले थे भूलाने उनको
    खुद को मिटा बैठे

    भूल अपनी थी
    जो बेवफा को
    खुदा माना

    बहुत सुंदर!

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  4. अच्छा लिखा है आपने । िवषय की अभिव्यक्ित प्रखर है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख महिलाओं के सपने की सच्चाई बयान करती तस्वीर लिखा है । समय हो तो उसे पढें और राय भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  5. shabd-sabd teri chot karti he.
    kadi dhup me anchal ki ot karti he.

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ओ पाहुन.....