Saturday, March 31, 2018


ये पति 

एक सुंदर ,गोरी ,कमसिन ,
चंचल चपला ने ,
अपने श्यामवर्णी ,
पति से पूछा
सुनो जी ,
जब मैं ना रहूंगी
 क्या आप पुनः
ब्याह रचाओगे
मेरी जगह
किसी अन्य को
इस घर की लक्ष्मी बनाओगे ।

बात सुनकर

पत्नी जी की
 पति जी ने
विस्मय से
उसको देखा
देख पूरे होते
अधूरे स्वपन
हृदय की उठती
तरंगों को रोका
भांप नजाकत समय की
गंभीरता को
मुखमंडल में समेटा ।

कुछ पल रुका

कुछ सोचा
 फिर तुनककर
यूँ बोला , प्रियतमा,
माना कि तुम हो अपव्ययी
फिर भी ,
तुम मेरी निधि  हो
ना सही मिसेस खन्ना
मेरे लिए तुम्ही परी हो ,
बेरुखी हो तो क्या
मेरे लिए सावन की झड़ी हो ,
इस बंजर जीवन में
जो खिल सकी
वो तुम ही तो एक कली हो ।

बात करके अनहोनी की

क्यों हर पल
मुझे कोसती हो
मेरी तो छोड़ो
ये नन्हे नन्हे
दिल तोड़ती हो ।

ना रही गर तुम

तो भला
कैसे जिऊंगा मैं
भरी जवानी में
क्या पतझड़ सहुँगा मैं?

गर लानी भी पड़ी कोई

जैसे -तैसे सब सहुँगा मैं
मान तुम्हारी प्रतिमूर्ति
बस उसको पूजुँगा मैं
पर कसम तुम्हारी
इन नन्ही आंखों को
ना रोने दूंगा मैं

Thursday, March 29, 2018

अलि  री सघन पथ ये प्रेम का 

कभी हंसते आर्द्र  नयन
सुख का आसव छलकाने को
बने समाधि एक पल में
सुख-दुख का भेद मिटाने को ।

भटके  कभी व्याकुल मन
प्रिय छवि पाने को
कभी छिपे प्रिय से ही
मन का भेद छिपाने को।

 उठे उर में कभी तरंगें
नवजीवन राग सुनाने को
 हो जाए निस्पंद कभी ये
चिर  वेदनाओं के आ जाने से।

मचलें कभी अभिलाषाएं
नया वितान सजाने को
 कभी घुलें हिम-कण सी
 प्रिय से दूर हो जाने पर।

Sunday, March 25, 2018

क्या तुम ....


क्या तुम ....


अविरल बहते दृग मोती में, मेरी करुणा का भार
क्या तुम सह पाओगे ,जब आओगे, कभी इस पार ।

असीम सुख-वैभव  किया उर-वेदना  के नाम
तुम भी कर पाओगे क्या कभी  ऐसा बलिदान ।

अपनी हर पीड़ा को समझा मैंनें एक वरदान
दे पाओगे  क्या तुम भी, दुख को कभी ऐसा मान ।

कई युगों  से   प्राणों ने नहीं किया  सुख का भान
तुम भी कर पाओगे क्या कभी,  ऐसी तृष्णा का बखान।

तारे चुन चुन कर रोज बनाऊं वकुल वितान
दे पाओगे क्या तुम कभी, अम्बर को ऐसा दान।

Sunday, March 18, 2018

है आज विकल लघु प्राण मेरे


                                                               है आज विकल लघु प्राण मेरे...


पल पल में  बसे
युगों के फेरे
विरह तम ने लगाए
क्यू्ं  उर पर पहरे

है आज विकल लघु प्राण मेरे....

अनंत पथ से
उठ रही ये कैसी पदचाप है
कामनाएं कर रही
क्यू प्रलय नाद है

है आज विकल लघु प्राण मेरे....

हो रहा विलुप्त भेद
जीवन-निर्वाण में
दिख रहे सुख-दुःख
क्यू्ं सब एक है

है आज विकल लघु प्राण मेरे....

ना विरह संताप कोई
ना मिलन उन्माद है
घुल गए सभी आवेग
क्यू्ं  उर में आज है

है आज विकल लघु प्राण मेरे....

मूक व्यथा
कर रही  मेरा श्रंगार है
श्वासों के तार
क्यू्ं टूट रहे बारम्बार है

है आज विकल लघु प्राण मेरे...

Friday, March 02, 2018

कामना


नहीं चाहती 
करो तुम 
मुझ पर 
कोई उपकार 
देना चाहो तो 
दे देना 
सच्चे नेह
का उपहार।       

सपनों के
अनंत पथ में 
थम जाऊँ 
जब जब 
होकर हताश 
रच देना 
तब तब
आकर तुम 
आशा का 
नया आकाश।

व्यथित उर
 की वेदना 
जब धूमिल 
 कर दे 
मेरा श्रृंगार 
अपनी मधुर 
छटा से
तुम आकर 
हर लेना 
हर संताप ।

रूठ जाऊं 
कभी तुमसे 
ना आऊं 
मिलने 
उस पार 
नेह पाती 
भेजकर 
मना लेना 
तुम हर बार ।

जीवन पथ में 
चलते चलते 
छूट गया
गर हाथ 
मन वीणा की 
डोर से 
पढ़ लेना
 मन से 
मन की बात।

ओ पाहुन.....