क्या तुम ....
अविरल बहते दृग मोती में, मेरी करुणा का भार
क्या तुम सह पाओगे ,जब आओगे, कभी इस पार ।
असीम सुख-वैभव किया उर-वेदना के नाम
तुम भी कर पाओगे क्या कभी ऐसा बलिदान ।
अपनी हर पीड़ा को समझा मैंनें एक वरदान
दे पाओगे क्या तुम भी, दुख को कभी ऐसा मान ।
कई युगों से प्राणों ने नहीं किया सुख का भान
तुम भी कर पाओगे क्या कभी, ऐसी तृष्णा का बखान।
तारे चुन चुन कर रोज बनाऊं वकुल वितान
दे पाओगे क्या तुम कभी, अम्बर को ऐसा दान।
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