Thursday, November 10, 2005

वह एक फूल

खिला कहीं किसी चमन में
एक फूल सुन्दर
अनुपम थी उसकी आभा
विस्मयी थी उसकी रंगत

इतना सुगंधित कि
हर मन हर्षा जाता
अपने गुणों से
वह प्रकर्ति का उपहार था
कहलाता

ज्यों ज्यों समय बीता
वह पुष्प और महका
अपने सौन्दर्य से
उस बगिया का
केन्द्र बन बैठा

तभी एक रात
भयानक तूफान आया
अपने बल से जिसने
चट्टानों को भी सरकाया
तूफान के जोर को
वह फूल भी न सह पाया
पलक झपकते ही
धूल में जा समाया

मन चमन के दुर्भाग्य पर
पछताया
क्यों इतना सुन्दर कुसुम
वह न सम्भाल पाया
काल के जोर को
कोई
क्यूँ न थाम पाया

तभी चमन ने
अपनी महक से
जीवन का अर्थ समझाया
कुछ पल ही सही
उस कुसुम ने
चमन को महकाया
जब तक जिया
सभी के मन को लुभाया
अल्प ही सही
उसका जीवन सच्चा जीवन कहलाया

Wednesday, November 09, 2005

दीप

दीप

जल अकम्पित
दीप उज्जवल
हो आलोकित
मन मन्दिर

मंगल गान
करे दिशाएँ
पुलक उठे
भू शिराऍ

हो `पज्जवलित
बन `पचडंधार
शुभ मंगल का
हो संचार

जल निरंतर
अचंचल हर पल
भोर के
आने तक
तम के घरा से
मिट जाने तक

जल अकम्पित
दीप उज्जवल

Monday, September 12, 2005

मुस्कान

मुस्कान

ओ निशछल मधुर मुस्कान
हर पल मेरा साथ निभाना
तुम बन मेरा साया
इस नीरस मन में समाना

नवजात शिशु सी है
कोमल तुम्हारी छुअन
माञ स्पर्श से देती है
हदय को स्पंदन
इक बार ही सही
मेरे सि्थर मन में
praण फूँक जाना
हो सके
पल दो पल
इसे भी गति दे जाना

सुगंधित पुष्प हो तुम
षोडषी का कोमल तन हो तुम
चपल किशोरी का
चंचल मन हो तुम
हो सके अपनी विस्मयी सुगंध से
मुझे भी महका जाना
अपनी कोमल बाँहोँ का
झूला झुला जाना
अपनी चंचलता मेरे
सि्थर होठों को दे जाना

मरूभूमि में आयी बहार हो तुम
गम्भीरता पर मानो prahar हो तुम
नई नवेली का shingar हो तुम
हो सके तो
बन बहार मेरे जीवन में आना
अपने अचूक वार से
मेरी उदासी मिटाना
बस एक बार फिर
मुझे नई नवेली सा सजा जाना

सूना जीवन

खो गए ओ घन कहाँ तुम
हो कहाँ किस देश में
पथरा गई कोमल धरा
चिर विरह की सेज में।

थी महक जिसमें समाई
तुम्हारे अचल प्रेम की
हुई तृषित वही वसुधा
विरहिणी के भेस में।

हो गए जो विरल घन तुम
सुधा निस्पंद हो गई
बसा पुलक धन उर में
चिर नींद में है सो गई।

लौट आओ तुम नीरधर
बन लघु पुराण विशेष
कह रहीं सूनी आँखें
बेसुध सुधा का संदेश।

Thursday, March 24, 2005


आयी होली आयी

आयी होली आयी
बजने लगे
उमंग के साज
इन्द् धनुषीय रंगों से
रंग दो
पिया आज

न भाए रंग
अबीर का
न सोहे
रंग गुलाल
नेह के रंग से पिया
रंग दो
चुनरिया लाल

न जानूँ बात
सुरों की
है अनजानी
हर ताल
होली के मद में नाचूंगी
तुम संग
हो बेसुध बिन साज

बाट तुम्हारी
मैं जोहुंगी
नयन बिछाए
हर राह
भूल न जाना
बात मिलन की
आई होली आज

Saturday, March 12, 2005

मानव

ये कैसी डगर हैये कैसा सफ़र है
चले जा रहा है
बढ़े जा रहा है
ना कोई है साथी
ना ही हम सफ़र है
अकेले ना जाने कहां रहा है
कँटीली हैं राहें
ये बंजर चमन है
मरुभूमि तय किए जा रहा है
ना राह है कोई
ना मंजिल है दिखती
अन्धेरे में फिर भी
बढ़े जा रहा है
लहुलुहान तन है
चंचल मन है
अनदेखे कल से
डरे जा रहा है
पाने की आशा
खोने का भय है
इसी द्वंद में शायद जिए जा रहा है
तुम्हारा व मेरे प्रेम का इतिहास

सागर मंथन
निशब्द परलाप
अनकही वेदना
हिय से उठती आह

इन पिघलते एहसासों ने रचा
तुम्हारे व मेरे प्रेम का इतिहास

व्योम तकती आँखें
निरंतर परमाद
चिर संगिनी यादें
नीरव पलों का साथ

इन पिघलते एहसासों ने रचा
तुम्हारे व मेरे प्रेम का इतिहास

विरह यामिनी
निस्तेज pran
निस्पंद जीवन
विषाद सजल मन

इन पिघलते एहसासों ने रचा
तुम्हारे व मेरे प्रेम का इतिहास

अनकही पहेली
अनजानी तकरार
न आयी कभी बसंत
न देखी हमनें बहार

इन पिघलते एहसासों ने रचा
तुम्हारे व मेरे प्रेम का इतिहास

ओ पाहुन.....