Friday, December 15, 2006

पदचाप

स्‍मृति के पट से
उठ रहीं पदचाप हैं
चूमने जिन्‍हें फिर फिर
कोमल अधर बेताब है

थिरकती पुतलियों ने
किया आसव पान है
छोङ संग मूक वेदना
हो चली अनजान है

झंकृत जीवन वीणा पर
उर ने छेङी तान है
कामनाओं के इन्‍द्रधनुष से
लुप्‍त हुआ एकांत है

कह रही हर गूँज
गल रहा संताप है
विरह-निशि के बाद
देखो ! मधुर मिलन अब पास है

Tuesday, December 05, 2006

नयन बावरे गए आज भर

नयन बावरे गए आज भर
पल में छलकी
गागर गहरी
पल में बेसुध
भए सजल

नयन बावरे गए आज भर
कभी सकुचे
पलकों के लघु तन
कभी ताके
असीम गगन

नयन बावरे गए आज भर
तडित घन के
प्रज्‍जवलित अंग सा
सिहर उठे
व्‍याकुल तन

नयन बावरे गए आज भर
कामनाओं के
कम्‍पन से
डोल रहा
एकाकी मन

नयन बावरे गए आज भर
पिया पिया के
मुखरित स्‍वर से
चहुँ दिशाएं
गुंजे एक संग

Thursday, October 19, 2006

दीप

निराशा के तम को चीर कर
आशा का दीप जला दो
मन मंदिर में फिर से
ज्योति कलश सजा दो

विरह वेदना का संताप
नयनों में बसी मिलन की प्यास
प्रणय की नव विभा में
मिलन दीप जला दो

हो रहा जीवन तिल तिल राख
मन में लिए मिलन की आस
उज्जवल आलौकिक फिर से
नव जीवन दीप जला दो

Wednesday, September 06, 2006

अश्रु नीर

यह नीर नही
चिर स्‍नेह निधि
निकले लेन
प्रिय की सुधि

संचित उर सागर
निस्‍पंद भए
संग श्‍वास समीर
नयनों में सजे

युग युग से
जोहें प्रिय पथ को
भए अधीर
खोजन निकले

छलके छल-छल
खनक-खन मोती बन
गए घुल रज-कण
एक पल में

Monday, August 21, 2006

पाहुन

बिन परिचय
बिन आभास के
आया पाहुन जो पास
मघुर कसक सी
दे गया
निस्पंद उर में आज

व्‍याकुल थे
ळोचन युगो से
एक झलक पाने को
आन बसा वो
रोम रोम में
चिर तृष्‍णा मिटाने को

श्‍वास निश्‍वास की
डोर बंधे पल
कई युग बनाने को
रच बस गया
'वह' हृदय में
युगों का फेर मिटाने को

Friday, July 14, 2006

आँसू


ये सच है कि
ये आँसू हैं
हमारे दोस्त हर दम
कभी गम तो कभी खुशी से
कर देते है आँखें नम

करते कभी
इनकी नमी से
वफा का एहसास
दो चाहने वाले मन
तो कभी
बेरूखी पर किसी की
बह उठते
दुख का सागर बन

माना कि
ये हैं मूक
पर इनकी आहों में भी
असर होता है
बहें जब दुआऍ बनकर
खंजर भी बेअसर होता है

रखना सहेज कर इनको
ताउम्र साथ निभायेंगें
छोड़ देंगें साथ
जब सभी अपने
ये ही है जो बाँहों का सहारा देंगें

Tuesday, April 18, 2006

विरह यामिनी

लिए कर तिमिर हार
चली पथ विरह रात
न संगी लिए संग
न पिया पथ आभास ।

चली रे चली
कहाँ ये चली ।

पहन चाँदनी के दुकूल
धर शीतल घन उर
सजा तारों से अंग मृदुल
नयनों में दीप झिल‍ मिल ।

चली रे चली
कहाँ ये चली ।

कम्पित अंग घटा घनघोर
बिखरा अलकों के भीगे छोर
बाँध पिया संग मन की डोर
लिए श् वासों में सुरभी अनमोल ।
चली रे चली
कहाँ ये चली ।

Sunday, March 26, 2006

कौन से पथ राह जोहूँ


कौन से पथ राह जोहूँ
गए किस ओर साँवरे
बाट जोहत सजल नयना
हो गए अब बावरे।

निर्झर अम्बर बरस रहा
मिटा घरा गगन का भेद
पिघल दिशाएँ एक भईं
लिए संग व्यथा संदेश।

पल पल बीता युग भया
नहीं टूटी उर की आस
आन मिलो अब साँवरे
भेद विरह संताप

Tuesday, March 14, 2006

आयो रे आयो रे आयो होली का त्यौहार


अबीर‍‍‍ गुलाल की थाल हाथ में
द्वार लगायो बंदनवार
नेह के रंगों से चौक पूजा
आयो होली का त्यौहार

सनन सनन सन चले पवनिया
डोले भँवरा महुआ डाल
बिन गीत बिन साज के
झूमत हर नर नारी

कोई उड़ावे रंग हवा में
कोई रंगे गाल
कोई बजावे ढोल पखावज
कोई देवत ठुमरी पे दाद

भाग रही देखो राधा
पीछे पीछे ग्वाल बाल
आ झपट रंग लगायो
बेसुध राधा न जानी
नटखट कान्हा की चाल

Wednesday, February 22, 2006

मत छुओ इन पलकों को

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

भूल गई थीं
पथ ये अपना
चंचल सपनों संग
चिर मेल अपना
सपनों के कम्पन से
आज इनका सूनापन
मिटने दो।

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

मूक व्यथा ने था
किया बसेरा
विरह घन ने था
इनको घेरा
drig- शिला को
बन जल-कण
आज बिखरने दो

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

युगों में बीते
विरह पल-‍छिन
तरसे दरस बिन
तRषित लोचन
उर सागर को आज
अमिट प्यास
हरने दो।

मत छुओ इन पलकों को
बन अश्रु पीड़ा बहने दो।

Monday, February 13, 2006

“वैलनटाइन” बनाम “ बेलनटाइम”


था “वैलनटाइन” का जोर
थी धूम चारों ओर
अखबारों से चलचित्र तक
बस इसका ही था शोर

हर युवक का मन था
आनन्द विभोर
थी आशा शायद
इस बार जुड़ सके
मन की डोर

बताया एक मित्र ने
ये दिन है
दिल का हाल सुनाने का
दिल कि बात
दिल तक पहुँचाने का

बजने लगी जल तरंग
हमारे भी इस नीरस मन में
आया विचार देखें भला
क्या असर हैं इस दिन में

थी समस्या भला कैसे
‌‌‌ श्रीमती जी को यह बात समझाऍ
अपने बेताब दिल का
उन तक भी हाल पहुँचाऍ

उठायी कलम
लिख भेजी चार पंक्तियाँ
कुछ यूँ हमने

"यूँ तो प्यार नहीं मोहताज
किसी लम्हे का
दिल चाहता है कि तुम्हें
हर पल प्यार करूँ
सुना है "ये दिन" है
चाहने वालों का
सोचा क्यों ना
खुल के इजहार करूँ।

पढ हमारा प्रेम पत्र
उनका पारा चढ गया
घुमा बेलन हाथ में
बेरूखी से
ये भाषण जड़ दिया
"कहाँ से पाला है तुमने
ये प्रेम का भूत भला
भगवान जाने कैसे
जाएगी अब ये बला।

अरे ! करना ही था इजहार
अपने खातों का करते
मुझ अबला को
यूँ पाई पाई को
मोहताज ना करते।

था मुझसे गर प्यार
कुछ उपहार दिया होता
पिसी जा रही हूँ
इस चक्की में
कुछ उपाय किया होता।

जाओ इस अनर्गल प्रलाप से
ना मुझे सताओ
नहीं है कुछ काम
तो बाजार ही हो आओ।

मित्रों ! पकड़ लिए कान
उसी पल हमने
ना अब कभी
ये भूल दोहराऍगे
टूट जाए चाहे
ये शादी अपनी
"बेलनटाइम" ना अब
कभी मनाऍगे।

Tuesday, January 17, 2006

किससे माँगें अपनी पहचान


हीय में उपजी,
पलकों में पली,
न‌श्रत्र सी आँखों के
अम्बर में सजी,
पल‍‍‍ ‍‍‍‍‍दो पल
पलक दोलों में झूल,
कपोलों में गई जो ढुलक,
मूक, परिचयहीन
वेदना नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

नभ से बिछुड़ी,
धरा पर आ गिरी,
अनजान डगर पर
जो निकली,
पल दो पल
पुष्प दल पर सजी,
अनिल के चल पंखों के साथ
रज में जा मिली,
निस्तेज, प्राणहीन
ओस की बूँद नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान।

सागर का प्रणय लास,
बेसुध वापिका
लगी करने नभ से बात,
पल दो पल
का वीचि विलास,
शमित शर ने
तोड़ा तभी प्रमाद,
मौन, अस्तित्वहीन
लहर नादान,
किससे माँगे अपनी पहचान

सृष्टि ! कहो कैसा यह विधान
देकर एक ही आदि अंत की साँस
तुच्छ किए जो नादान
किससे माँगे अपनी पहचान।

Saturday, January 07, 2006

कौन ये ?

कौन ये ?


कौन बन प्रणय नाद
विरह वेदना को तोड़ता
है कौन जो श् वासों की डोर
तोड़कर फिर जोड़ता।

कौन बन अश्रु
तृषित लोचनों में डोलता
है कौन जो लधु प्रणों में
बन रूधिर दौड़ता ।

कौन बन संगीत
मधु मिलन गीत बोलता
है कौन जो पिघल श् वासों में
मन के भेद खोलता

कौन बन दीप
आलोक तिमिर में घोलता
है कौन जो निस्पंद उर को
फिर जीवन की ओर मोड़ता..............

ओ पाहुन.....